Friday, January 12, 2018

2017 में सुप्रीम कोर्ट के 25 ऐतिहासिक फैसले .




1. महिलाओं को प्यार करने और अस्वीकार करने का अधिकार :-
न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा, एएम खानविलकर और मोहन एम शंतानागौदर की पीठ ने एक लड़की को परेशान करने और छेड़छाड़ के कारण आत्महत्या के लिए बाध्य किए जाने के जुर्म में सजा पाए एक आरोपी की अपील की सुनवाई करते हुए कहा, “हमें बाध्य होकर इस बात पर सोचना पड़ रहा है और इसकी चर्चा करनी पड़ रही है कि इस देश में महिलाओं को शांति से क्यों नहीं रहने दिया जाता और उनको मर्यादापूर्ण स्वतंत्र जिंदगी क्यों नहीं जीने दी जाती। उसकी अपनी निजी इच्छा है और इसको क़ानून ने स्वीकार किया है। इसको सामाजिक आदर मिलना चाहिए। कोई भी व्यक्ति किसी महिला को प्यार करने के लिए बाध्य नहीं कर सकता। उसको इसे नकारने का पूरा अधिकार है।” 

2. निजता का अधिकार मौलिक अधिकार है :-
निजता के अधिकार के बारे में लंबी अवधि से चले आ रहे इस बहस को अंजाम तक पहुंचाते हुए अपने इस ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि निजता का अधिकार मौलिक अधिकार है। कोर्ट ने कहा कि यह अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 का अभिन्न हिस्सा है। यह फैसला नौ जजों की पीठ ने एकमत से सुनाया। पीठ ने इस मामले में एमपी शर्मा और खड़क सिंह मामले में अपने फैसले को निरस्त कर दिया। कोर्ट ने फैसले के जिन बातों को निरस्त किया –
*एमपी शर्मा मामले में निजता को मौलिक अधिकार नहीं कहना खड़क सिंह मामले में निजता को मौलिक अधिकार नहीं बताना .
*निजता का अधिकार जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार के अंतर्भूत हिस्से के रूप में संरक्षित है

3. तीन तलाक असंवैधानिक :-
सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक की प्रथा को बहुमत (3:2) से असंवैधानिक करार दिया। न्यायमूर्ति नरीमन और ललित ने कहा कि तीन तलाक असंवैधानिक और समानता के अधिकार (अनुच्छेद 14) का उल्लंघन करता है, जबकि न्यायमूर्ति जोसफ ने कहा कि यह प्रथा शरीयत और कुरान की मौलिक मत के खिलाफ है।                        


4. अध्यादेश को विधायिका के सामने पेश करना जरूरी, इसे दुबारा जारी करना संविधान से धोखा:-
सात जजों की संवैधानिक पीठ ने कृष्ण कुमार सिंह बनाम बिहार राज्य  मामले में बहुमत से फैसला दिया कि अध्यादेशों को दुबारा जारी कर देना संविधान के साथ धोखा और विधाई प्रक्रिया को बाधित करना है। कोर्ट ने कहा कि राष्ट्रपति का अनुच्छेद 123 और राज्यपाल का अनुच्छेद 213 के तहत अध्यादेशों से सहमति जताना न्यायिक पुनरीक्षण से परे नहीं है। न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ ने बहुमत के फैसले में कहा कि ऐसा करना जरूरी है जबकि न्यायमूर्ति एमबी लोकुर ने कहा कि यह निर्देशात्मक प्रकृति का है। मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर ने कहा कि वे इन दोनों ही अनुच्छेदों की व्याख्या के मामले को संसद/विधायिका के लिए खुला छोड़ रहे हैं।

5. अवयस्क पत्नी के साथ यौन संबंध बलात्कार है :-
सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की पीठ ने कहा कि 18 साल से कम उम्र की पत्नी (अवयस्क) के साथ यौन संबंध उसके साथ बलात्कार है। न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता ने स्पष्ट किया कि सीआरपीसी की धारा 198(6) 18 साल से कम उम्र की पत्नियों के साथ बलात्कार के मामले में प्रयुक्त होगा इस मामले पर संज्ञान इसी धारा के अनुरूप लिया जाएगा। कोर्ट ने आपराधिक क़ानून (संशोधन) अधिनियम, 2013 द्वारा संशोधित आईपीसी की धारा 375 (जो कि बलात्कार को परिभाषित करता है) के दो अपवादों का भी जिक्र किया जो इस तरह के यौन संबंधों की इजाजत देता है। इन मामलों में सहमति से यौन संबंध के लिए उम्र की सीमा को 15 से बढ़ाकर 18 कर दिया गया है।

6. धर्म/जाति के नाम पर वोट मांगना :-
सुप्रीम कोर्ट की सात सदस्यीय पीठ ने अपने फैसले में कहा कि धर्म, जाति या सम्प्रदाय के नाम पर वोट मांगना भ्रष्ट आचरण है और इस तरह के उम्मीदवार के चुनाव को इस आधार पर रद्द किया जा सकता है। न्यायमूर्ति टीएस ठाकुर की अध्यक्षता वाली पीठ ने यह फैसला 4:3 से दिया। पीठ ने जनप्रतिनिधित्व क़ानून की धारा 123(3) की व्याख्या करते हुए कहा, “हम इस बहस में नहीं जाएंगे कि हिंदुत्व क्या है और इसका अर्थ क्या है। हम 1995 के फैसले पर भी पुनर्विचार नहीं करेंगे और इस समय हिंदुत्व या धर्म की जांच भी नहीं करेंगे। इस समय हम अपने को उन्हीं मुद्दों तक सीमित रखेंगे जो हमारे सामने में उठाया गया है। हमारे सामने जो बातें रखी गई हैं उनमें “हिंदुत्व” का कोई जिक्र नहीं है। अगर कोई इस बारे में बताता है कि “हिंदुत्व” का जिक्र है, तो हम उसकी बात सुनेंगे। हम इस समय हिंदुत्व के मुद्दे में नहीं जाएंगे। 



7. निर्भया मामले में अभियुक्तों को मौत की सजा :-
सुप्रीम कोर्ट ने निर्भया मामले में अभियुक्तों की मौत की सजा को बरकरार रखा। 430 पृष्ठ के फैसले में पीठ ने कहा कि अभियुक्तों का व्यवहार पाशविक रहा है और यह पूरी घटना किसी और दुनिया की कहानी लगती है जहाँ मानवीयता को अपमानित किया गया है। तीन जजों की पीठ, जिसमें न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा, आर बनुमथी और अशोक भूषण शामिल थे, ने अभियुक्तों की याचिका ख़ारिज कर दी और निचली अदालत द्वारा सुनाई गई मौत की सजा को बरकरार रखा। 

8. अवमानना के आरोप में हाई कोर्ट जज को जेल :-
एक महत्त्वपूर्ण फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कलकत्ता हाई कोर्ट के जज सीएस करणन को अवमानना के आरोप में छह माह की जेल की सजा सुनाई। कोर्ट ने कहा, “हमारे  विचार से न्यायमूर्ति करणन ने न्यायालय की अवमानना की है। उन्होंने जो काम किया है उससे कोर्ट और न्यायपालिका की गंभीर अवमानना हुई है। हम उनको छह माह के जेल की सजा देकर संतुष्ट हैं। … अवमानना करने वाला किसी भी तरह का प्रशासनिक या न्यायिक कार्य नहीं करेगा।” इस पीठ की अध्यक्षता मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जेएस खेहर ने की। न्यायमूर्ति करणन ने सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन और अवकाशप्राप्त जजों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप लगाए थे।  

9. सड़क दुर्घटनाओं को कम करने के निर्देश :-
सुप्रीम कोर्ट ने सड़क दुर्घटनाओं की संख्या में कमी लाने के लिए दिशानिर्देश जारी किए। न्यायमूर्ति एमबी लोकुर और दीपक गुप्ता की पीठ ने कहा कि ऐसा कहा जाता है कि सड़क दुर्घटना में हर साल एक लाख से अधिक लोगों की मौत हो जाती है। इसका मतलब यह हुआ कि हर तीन मिनट में एक व्यक्ति की सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो जाती है। पीठ ने कहा कि दुर्घटना में मौत और अन्य वाहन दुर्घटनाओं के कारण दिए जाने वाले मुआवजे की राशि सैकड़ों करोड़ में है।   

10. एलके आडवाणी के खिलाफ आपराधिक षड्यंत्र का मामला फिर बहाल :-
सुप्रीम कोर्ट ने 1992 में बाबरी मस्जिद को ढहाए जाने के मामले में भाजपा के वरिष्ठ नेता एलके आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती और 13 अन्य के खिलाफ आपराधिक षड्यंत्र के आरोपों को दुबारा बहाल कर दिया। अनुच्छेद 142 के तहत अपने विशेष संवैधानिक अधिकारों का प्रयोग करते हुए न्यायमूर्ति पीसी घोष और रोहिंटन नरीमन की पीठ ने राय बरेली मजिस्ट्रेट की अदालत में लंबित मामलों को भी लखनऊ सीबीआई कोर्ट को सम्मिलित सुनवाई के लिए भेज दिया।  [

11. नेत्रहीन दिव्यांगों की सार्वजनिक स्थलों तक पहुँच बनाने के लिए समय सीमा का निर्धारण
सुप्रीम कोर्ट ने नेत्रहीनों का सार्वजनिक स्थलों तक पहुँच सुगम करने के लिए समय सीमा निर्धारित कर दी। न्यायमूर्ति एके सीकरी और न्यायमूर्ति अशोक भूषण की पीठ ने निर्देश दिया कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र और राज्य की राजधानियों में मौजूद कुल सरकारी भवनों के 50 फीसदी भवनों में दिसंबर 2018 तक उनकी पहुँच आसान कर दी जाए। 

12. स्थानांतरित याचिका पर वीडिओ कांफ्रेंसिंग की इजाजत नहीं :-
सुप्रीम कोर्ट ने कृष्णा वेणी नगम बनाम हरीश नगम के मामले में कहा कि अगर यह आदेश दिया जाता है कि सुनवाई वीडिओ कांफ्रेंसिंग द्वारा हो तो यह ध्यान रखा जाना है कि 1984 के अधिनियम की भावना को ठेस न पहुंचे क्योंकि ऐसा होता है तो न्याय का उद्देश्य परास्त होगा।
उक्त मामले में सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की पीठ ने पक्षकार की सुनवाई में नहीं उपस्थित होने की स्थिति में एक विकल्प उपलब्ध कराया था जो ऐसे पक्षकार के लिए था जो अपनी रिहाइश की जगह से दूर होने के कारण सुनवाई में नहीं आ सकता। कोर्ट ने यह पूरी तरह उस कोर्ट की मर्जी पर छोड़ दिया था जहाँ मामले को स्थानांतरित किया गया कि वह चाहे तो जो पेशी पर नहीं आ पाए ऐसे गवाहों की पेशी को वीडिओ कांफ्रेंसिंग के जरिए रिकॉर्ड कर सकता है।

13. कानूनी उत्तराधिकारी शिकायतकर्ता को दंडित कर सकता है :-
न्यायमूर्ति एके सीकरी और न्यायमूर्ति अशोक भूषण की पीठ ने   हाई कोर्ट के उस फैसले को सही ठहराया जिसमें उसने कहा था कि, “अगर 1973 की संहिता यह चाहता कि ऐसे मामले जिसमें वारंट जारी हुए हैं पर शिकायतकर्ता की मौत हो जाती है तो उस स्थिति में शिकायतकर्ता की शिकायत को रद्द कर दिया जाए तो इस तरह के प्रावधानों का उसमें जिक्र होता जो कि नहीं है।” 



14. उपहार कांड में दोषियों को सजा :-
सुप्रीम कोर्ट ने उपहार सिनेमा के मालिकों में से एक 69 वर्ष के गोपाल अंसल को एक साल के लिए जेल भेज दिया। इस सिनेमा हॉल में 1997 में आग लगने के कारण 59 लोगों की जान चली गई थी। पर कोर्ट ने यह बात कायम रखी कि उसके भाई सुशील अंसल को पांच माह की जेल की सजा मिलेगी और जो वह पहले ही भुगत चुका है। कोर्ट ने कहा कि इस घटना के कारण लोगों को जिस तरह की तकलीफ़ हुई है और जो जानें गईं उसको देखते हुए अंसल पर लगाए गए 30 करोड़ का जुर्माना पर्याप्त नहीं है और इसमें वृद्धि करने की बात कही.

15. आईपीसी की धारा 498A का दुरुपयोग रोकने का निर्देश :-
दो जजों की एक पीठ ने आईपीसी की धारा 498A का दुरुपयोग रोकने के लिए दिशानिर्देश जारी किए। न्यायमूर्ति एके गोयल और यूयू ललित ने कहा कि धारा 498A को इसलिए जोड़ा गया था ताकि पतियों या उनके रिश्तेदारों के हाथों पत्नियों के शोषण को रोका जा सके क्योंकि कई बार ऐसी यातनाओं की परिणति महिलाओं की आत्महत्याएँ या उनकी हत्या में होती है। 

16. जमानत की अर्जी का जल्दी निपटारा :-
शीर्ष अदालत ने अदालतों को निर्देश दिया कि वे जमानत की अर्जी को एक सप्ताह के भीतर निपटाएं। सुप्रीम कोर्ट ने इन अदालतों में लंबित आपराधिक मामलों को भी शीघ्र निपटाने का निर्देश दिया। 

17. आयकर रिटर्न को आधार से लिंक करने को सही ठहराया :-
सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति एके सीकरी और अशोक भूषण की पीठ ने आयकर अधिनियम की धारा 139AA के तहत आयकर रिटर्न को आधार से जोड़ने को संवैधानिक ठहराया। हालांकि, पीठ ने उस खंड को लागू करने पर रोक लगा दिया जो आधार के निर्णय से प्रभावित होने वाला है। संविधान पीठ के समक्ष जो मामला है उसमें आधार की वैधता को ही चुनौती दी गई है। 

18. राज्य संसदीय सचिव का कार्यालय स्थापित नहीं कर सकता :-
सुप्रीम कोर्ट की न्यायमूर्ति जे चेल्मेश्वर, आरके अग्रवाल और एएम सप्रे की पीठ ने असम संसदीय सचिव (नियुक्ति, वेतन, भत्ते व अन्य) अधिनियम, 2004 को असंवैधानिक करार दे दिया। पीठ ने कहा कि अनुच्छेद 194 राज्यों को संसदीय सचिव के कार्यालय के गठन की अनुमति नहीं देता। 

19. चेक बाउंस के मामले में अगर शिकायतकर्ता को मुआवजा मिल गया है तो मामले को बंद किया जा सकता है :-
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट की धारा 138 के तहत किसी अभियुक्त को शिकायतकर्ता की अनुमति के बिना छोड़ा जा सकता है अगर कोर्ट इस बात से संतुष्ट है कि शिकायतकर्ता की शिकायतों का निपटारा हो गया है। कोर्ट ने कहा कि आपराधिक क़ानून की सामान्य भूमिका कि अपराध तभी तक कायम रहता है जब तक कि शिकायतकर्ता/भुक्तभोगी की स्वीकृति उसको मिली होती है, धारा 138 के तहत अपराध पर लागू नहीं होता। इसलिए CPC की धारा 258 के तहत मजिस्ट्रेट को यह अधिकार है कि वह आरोपी को बरी कर सकता है। 

20. मणिपुर में गैरकानूनी ढंग से होने वाली हत्या पर एसआईटी :-
न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर और दीपक गुप्ता की पीठ ने एक ऐतिहासिक फैसले में मणिपुर में हो रही गैरकानूनी हत्या पर सीबीआई को एक विशेष जांच दल (एसआईटी) गठित करने का निर्देश दिया। “…सीबीआई निदेशक को निर्देश दिया जाता है कि वह ऐसे पांच अधिकारियों का समूह बनाए जो कि…मामलों से जुड़े रिकॉर्ड की जांच करें और जरूरी एफआईआर दायर करें और 31 दिसंबर 2017 तक इस जांच को पूरी कर लें, चार्ज शीट तैयार करें और जो भी आवश्यक हो करें। पूरी प्रारम्भिक तैयारी जांच आयोगों, या न्यायिक जांचों या गुवाहाटी या मणिपुर हाई कोर्ट या फिर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) द्वारा पहले ही की जा चुकी है। हम यह पूरी तरह विशेष जांच दल पर छोड़ते हैं कि इस बारे में क़ानून के तहत जमा की गई सूचनाओं को वे किस तरह प्रयोग करते हैं ,हम मणिपुर सरकार से उम्मीद करते हैं कि वह इस जांच दल को पूरा सहयोग देगी। हम यह भी उम्मीद करते हैं कि इस जांच दल को भारत सरकार पूरा सहयोग देगी ताकि वह बिना किसी रुकावट के समय पर जांच पूरी कर सके। सीबीआई के निदेशक टीम के सदस्यों का चुनाव करेंगे और इसके गठन के बारे में हमें दो सप्ताह के भीतर बताएंगे।” 

21. हर लेखक को अपना विचार पूरी स्वतंत्रता से रखने का मौलिक अधिकार प्राप्त है :-
न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा, एएम खानविलकर और डीवाई चंद्रचूड़ ने प्रोफ़ेसर कंचा इलैया की पुस्तक “सामाजिका स्मग्लुर्लू” पर प्रतिबन्ध लगाने वाली एक याचिका को खारिज कर दिया। विचारों की स्वतंत्रता को लेखक का मौलिक अधिकार बताते हुए कोर्ट ने कहा, “जिस तरह की यह पुस्तक है वैसी पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगाने की माँग को बहुत ही सख्ती से देखने की जरूरत है क्योंकि हर लेखक को अभिव्यक्ति और अपनी बात पूरी तरह से कहने की स्वतंत्रता है। किसी एक लेखक की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पाबंदी लगाने को हल्के में नहीं लेना चाहिए।” 

22. 10 साल तक की जेल वाले अपराधों में आरोपी 60 दिनों के बाद जमानत का हकदार :-
सुप्रीम कोर्ट ने 2:1 से यह फैसला दिया कि ऐसा अपराध जिसमें किसी को अधिकतम 10 साल की सजा हो सकती है और अगर पुलिस उसकी गिरफ्तारी के 60 दिनों के भीतर उसके खिलाफ चार्ज शीट दाखिल करने में विफल रहती है तो आरोपी आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 167(2)(a)(2) के तहत डिफॉल्ट जमानत का हकदार है। 

23. जेल सुधार को लेकर ऐतिहासिक दिशानिर्देश :-
न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर और दीपक गुप्ता की पीठ ने जेलों में सुधार के लिए बहुत ही अहम दिशानिर्देश जारी किए। कोर्ट ने जेलों में होने वाले अप्राकृतिक मौतों के बारे में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों और राष्ट्रिय मानवाधिकार आयोग द्वारा जेलों में होने वाली आत्महत्याओं के बारे में उपब्ध कराए गए आंकड़ों पर गौर किया। इस तरह के तथ्यों और आंकड़ों को रेखांकित करते हुए कोर्ट ने देश भर के जेलों में कैदियों की हालत को सुधारने के लिए इसमें भारी परिवर्तन किए जाने की जरूरत पर जोर दिया ताकि जेलों में कैदियों की अप्राकृतिक मौतों को रोका जा सके। में कमी लाइ जा सके। 

24. सीजेआर की याचिका 25 लाख के जुर्माने के साथ खारिज :-
इस फैसले के लिए शायद 2017 में सुप्रीम कोर्ट की सर्वाधिक आलोचना हुई। सुप्रीम कोर्ट ने कैंपेन फॉर जुडीशियल अकाउंटिबिलिटी एंड रिफॉर्म्स द्वारा मेडिकल काउंसिल ऑफ़ इंडिया द्वारा तथाकथित रूप से घूस देने के मामले की एसआईटी जांच की मांग ख़ारिज कर दी और उस पर 25 लाख का जुर्माना भी लगाया। कोर्ट ने कहा कि एडवोकेट कामिनी जायसवाल और प्रशांत भूषण द्वारा मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा पर लगाए आरोप “अपमानजनक और अवमाननापूर्ण” है।

25. एडवोकेटों की वरिष्ठता के बारे में दिशानिर्देश :-
एडवोकेट को वरिष्ठ मानने की प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करने के लिए कोर्ट ने दिशानिर्देश जारी किए। उसने कहा कि अब से सुप्रीम कोर्ट से जुड़े सभी मामलों को प्रारम्भिक रूप से एक समिति देखेगी जिसकी अध्यक्षता मुख्य न्यायाधीश करेंगे। दो वरिष्ठतम जज और अटॉर्नी जनरल इस समिति के सदस्य होंगे जो बार से एक सदय का चुनाव करेंगे।  


Saturday, May 6, 2017

Sexual harassment and Vishakha guidelines: All you need to know

The petition, filed by the women’s right group Vishaka and four other women's organisations in Rajasthan against the State of Rajasthan and the Union of India, resulted in what are popularly known as the Vishaka Guidelines.  




What constitutes sexual harassment?


The Vishakha guidelines define sexual harassment including unwelcome sexually determined behaviour (whether directly or by implication) as:
a) Physical contact and advances;
b) A demand or request for sexual favours;
c) Sexually coloured remarks;
d) Showing pornography;
e) Any other unwelcome physical, verbal or non-verbal conduct of sexual nature


The Guidelines

Vishakha guidelines, as laid down by the Supreme Court put the onus of a safe working environment on the employer.
The guidelines say that: “It shall be the duty of the employer or other responsible persons in work places or other institutions to prevent or deter the commission of acts of sexual harassment and to provide the procedures for the resolution, settlement or prosecution of acts, of sexual harassment by taking all steps required.”
The guidelines also lay down a grievance redressal mechanism that mandates all companies, whether operating in the public or private sector, to set up Complaints Committee within the organisation to look into such offences. According to Tehelka’s managing editor, Shoma Choudhary, their organisation (despite championing women causes) didn't have such a committee.


Whether or not such conduct constitutes an offence under law or a breach of the service rules, an appropriate complaint mechanism should be created in the employer’s organisation for redress of the complaint made by the victim. Such complaint mechanism should ensure time bound treatment of complaints,”  the Supreme Court guidelines say.


The Complaints Committee should be headed by a woman and not less than half of its member should be women. Further, to prevent the possibility of any undue pressure or influence from senior levels, such Complaints Committee should involve a third party, either NGO or other body who is familiar with the issue of sexual harassment.


Some general points about the judgement:

legal freedom
Below are some of the general points of the Vishakha judgment:

Gender equality includes protection from sexual harassment and the right to work with dignity as per our constitution.
Extra hazard for a working woman compared her male colleague is clear violation of the fundamental rights of ‘Gender Equality’ & Right to Life and Liberty.
Safe working environment is fundamental right of a working woman.
In no way should working women be discriminated at the workplace against male employees. (If a woman is, then it must be documented in company policies, for example limitation of women in police and armed forces.)
Working with full dignity is the fundamental right of working women.
The right to work as an inalienable right of all working women.
The Vishakha judgment had recommended a Complaints Committee at all workplaces, headed by a woman employee, with not less than half of its members being women. All complaints of sexual harassment by any woman employee would be directed to this committee. This is significant because an immediate supervisor may also be the perpetrator. The committee advises the victim on further course of action and recommends to the management the course of action against the man accused of harassment.


How does it define sexual harassment at the workplace?

Here is how the Vishakha judgment defines sexual harassment at the workplace.
Anything at work that can place the working woman at disadvantage compared to other male employees in her official career just because she is a woman – can be termed as sexual harassment.
Unwelcome sexually determined behaviour & demands from males employees at workplace, such as: any physical contacts and advances, sexually colored remarks, showing pornography, passing lewd comments or gestures, sexual demands by any means, any rumors/talk at workplace with sexually colored remarks about a working woman, or spreading rumours about a woman’s sexual relationship with anybody.

Friday, May 5, 2017

Delhi HC Allows Service of Summons via WhatsApp, Text message and Email

The High Court of Delhi recently joined ranks with several Courts around the country that are experimenting with the usage of technology in judicial proceedings. Justice Rajiv Sahai Endlaw has recently allowed the Plaintiff to serve the summons on one of the defendants through Whatsapp, text message and email.
Legal Freedom

“The plaintiffs are permitted to serve the defendant No.9 Ashok Kumar Agarwal by text message as well as through Whatsapp as well as by email and to file affidavit of service”,he said in a short order.The Court is hearing a case filed by Tata Sons alleging that 35 unidentified email ids were being used since December, 2015 to circulate “unwarranted, defamatory and baseless allegations questioning the integrity and educational qualification” of one of its officials, Mr. Tarun Samant. Three internet service providers (ISPs) were also made parties to the suit. It had, therefore, sought a permanent injunction against circulation of such content, demanding that all such email ids be blocked.Court’s orders issued in December last year had compelled the ISPs to reveal under a sealed cover identities of 35 anonymous email addresses from which the derogatory material was disseminated. While three of the defendants were served at their respective addresses, summons to the fourth respondent were served via Whatsapp, email and text message, after service of summons could not be completed at his available address.Last month, the High Court of Bombay had also accepted the served intimation and information via Whatsapp as service of notice, after one of the defendants in a copyright infringement case was being particularly evasive. The case concerned allegations of copyright infringement against Producers of the Kannada movie ‘Pushpaka Vimana’ that was released earlier this year.After several failed attempts to serve the summons on them, the judicial team found out the contact number of the producers and verified it via the app Truecaller, and then sent the intimation and information about the case through WhatsApp.  The intimation were also subsequently sent through Email.But Asian Age reported that when it contacted HC officials for clarification as to whether it had accepted WhatsApp or email as legitimate method of serving notice or summons, an official refuted it and said, “The order has been misinterpreted and the court is not advocating serving of notice through social media. Serving of summons has to be done through established procedure.”

Saturday, April 22, 2017

Dis-Honour Of Cheque Cases Can Be Filed Only To The Court Within Whose Local Jurisdiction.

A Three Judge Bench Of The Supreme Court Finally Held That A Complaint Of Dis-Honour Of Cheque Can Be Filed Only To The Court Within Whose Local Jurisdiction The Offence Was Committed, Which In The Present Context Is Where The Cheque Is Dishonoured By The Bank On Which It Is Drawn. The Court Clarified That The Complainant Is Statutorily Bound To Comply With Section 177 Etc. Of The CrPC And Therefore The Place Or Situs Where The Section 138 Complaint Is To Be Filed Is Not Of High Court


following are the acts which are components of the said offence : (1) Drawing of the cheque, (2) Presentation of the cheque to the bank, (3) Returning the cheque unpaid by the drawee bank, (4) Giving notice in writing to the drawer of the cheque demanding payment of the cheque amount, (5) failure of the drawer to make payment within 15 days of the receipt of the notice. if the five different acts were done in five different localities any one of the courts exercising jurisdiction in one of the five local areas can become the place of trial for the offence under Section 138 of the Act. In other words, the complainant can choose any one of those courts having jurisdiction over any one of the local areas within the territorial limits of which any one of those five acts was done. The Court accepted the view of another two Judge Bench Judgment in Harman Electronics Pvt.Ltd. v. National Panasonic India Pvt. Ltd. (2009) 1 SCC 720. It is one thing to say that sending of a notice is one of the ingredients for maintaining the complaint but it is another thing to say that dishonour of a cheque by itself constitutes an offence. For the purpose of proving its case that the accused had committed an offence under Section 138 of the Negotiable Instruments Act, the ingredients thereof are required to be proved. What would constitute an offence is stated in the main provision. The proviso appended thereto, however, imposes certain further conditions which are required to be fulfilled before cognizance of the offence can be taken. If the ingredients for constitution of the offence laid down in the provisos (a), (b) and (c) appended to Section 138 of the Negotiable Instruments Act intended to be applied in favour of the accused, there cannot be any doubt that receipt of a notice would ultimately give rise to the cause of action for filing a complaint. As it is only on receipt of the notice the accused at his own peril may refuse to pay the amount. Clauses (b) and (c) of the proviso to Section 138 therefore must be read together. Issuance of notice would not by itself give rise to a cause of action but communication of the notice would...

Grant of bail in cases of cheating and criminal breach of trust affecting large number of people would have an adverse impact on trust of criminal justice system

Delhi High Court: Rejecting the bail application of Sunil Dahiya, MD of Vigneshwara Group of Companies  under Section 439 of the Code of Criminal Procedure, the Court held that: “ The grant of regular bail in a case involving cheating, criminal breach of trust by an agent, of such a large magnitude of money, affecting a very large number of people would also have an adverse impact not only in the progress of the case, but also on the trust of the criminal justice system that people repose. It would certainly not be safe for the society. In case the applicant accused is granted regular bail, it is also likely that he may tamper with the evidence/witnesses, or even threaten them considering that the stake for the accused is high. It is also very much likely that looking to the high stakes, the nature and extent of his involvement, and his resources, he may flee from justice.”
It is pertinent to note that Sunil Dahiya was arrested and had been in judicial custody following complaints from investors who had allegedly been duped after investing money in two projects for construction of IT parks in Gurgaon and Manesar. It is was alleged that funds to the tune of around Rs 600 crores have been siphoned off by the accused by colluding, conspiring, ganging up with his family members and illegally benefiting from the complainants’ money on the false pretext of providing lucrative returns.
Mr Dahiya was represented by Senior Counsel Arvind Nigam who argued that, the right to automatic bail under the said provision stems from the fundamental right of personal liberty as enshrined under Article 21 of the Constitution and it is violative of Article 21, if an undertrial prisoner is detained in judicial custody for an indefinite period. It is pertinent to note that Dahiya had been in judicial custody since October 30, 2014 and relied upon Sanjay Chandra v. Central Bureau of Investigation, (2012) 1 SCC 40 to support Dahiya’s application for bail.
Whereas, the  Addl. Public Prosecutor relied upon Sunil Grover v. State, 2012 SCC Online Del 3539 and tried to distinguish the situation in Sanjay Chandra from the present case, by stating that in Sanjay Chandra, exchequer was put to loss by not holding auction of government resources, however in the present case general members of the public have been directly put to loss.
The Bench of  Vipin Sanghi, J. while considering the factors to grant bail laid as down  in Dipak Shubhash Chandra Mehta v. Central Bureau of Investigation, (2012) 4 SCC 134  and relying on Neeru Yadav v. State of U.P., (2014) 16 SCC 508 dismissed the bail application. The Court also stated that ‘the applicant accused appears to be a person with deep pockets. If he could manipulate and dupe more than 1,000 investors to invest in his projects, he may as well be able to influence these investors, other witnesses and the evidence to save his own skin’ and cited Y.S. Jagan Mohan Reddy v. Central Bureau of Investigation, (2013) 7 SCC 439 in which it was held that: “Economic offences constitute a class apart and need to be visited with a different approach in the matter of bail. The economic offences having deep rooted conspiracies and involving huge loss of public funds need to be viewed seriously and considered as grave offences affecting the economy of the country as a whole and thereby posing serious threat to the financial health of the country.” The Court also concurred with the view in Sunil Grover case in which the bail of the accused was rejected by the Court on similar grounds. [Sunil Dahiya v. State (NCT of Delhi), 2016 SCC OnLine Del 5566, decided on October 18, 2016]

Free legal services by lawyer will be considered for elevation to bench: Law Minister


Union Law Minister Ravi Shankar Prasad has said pro bono legal services rendered by a lawyer will be a part of consideration while assessment for elevation to bench

The government will also take services of retired judicial officers to provide free legal aid to poor litigants through digital platforms like video conference at various district levels
                     “The government is of the view that credible transparent legal aid should also be a component while assessing a lawyer for elevation to bench,” the Law Minister said
                   “The desire to give legal aid must come from commitment, not for publicity,” Prasad said
                       The government will also avail of the services of retired judicial officers by appointing them as Nyaya Mitra to assist poor litigants who are suffering due to delay in disposal of their case in court
                        Initiating Narendra Modi government’s pro-bono legal aid movement and launching three schemes to facilitate legal aid and access to justice for poor people, the minister said: “Lawyers interested in volunteering for pro bono services can register online with department of justice. Litigants can then apply for legal aid lawyer online and seek advice online.”
                       Another scheme Tele Law, an e-governance scheme to help people from the far-flung areas to access state legal services, has been launched. People can connect to lawyers at the state legal services authority through teleconference using the common service centres opened in all districts

The pilot project will be launched across 1,800 panchayats in Uttar Pradesh, Bihar, North-East and Jammu & Kashmir. Later, the same will be extended to other states too
                    Besides, scheme Nyaya Mitra of retired judges and legal officers will be employed at district level to assist litigants whose cases have been pending for a long time



It will also help to identify cases that can be solved through Lok Adalats, and help the litigants connect to the Tele Law advisers


he scheme to be launched in 227 districts across North-East, Jammu & Kashmir, UP, Bihar, Maharashtra, Rajasthan, Orissa, Gujarat and Bengal.

Advocate Act 1961

Bar Council of India:
There shall be a Bar Council for the territories to which this Act extends to be known as the Bar Council of India which shall consist of the following members, namely .Provided that such person shall continue to carry on the duties of his office until the Chairman or the Vice-Chairman, as the case may be, of the Council, elected after the commencement of the Advocates (Amendment) Act, 1977, assumes charge of the office. .Provided that every such member shall continue to hold as member of the Bar Council of India until his successor is elected.

Functions of State Bar Councils:
(1) The functions of a State Bar Council shall be-(a) to admit persons as advocates on its roll.

Membership in International Bodies:
The Bar Council of India may become a member of international legal bodies such as the International Bar Associations or the n International Legal Aid Association, contributes such sums as it thinks fit to such bodies by way of subscription or otherwise and authorise expenditure on the participation of its representatives in any international legal conference or seminar.

Senior an other advocates:
(1) there shall be two classes of advocates, namely , senior advocates and other advocates.(2) An advocate may, with his consent, be designated as senior advocate if the Supreme Court or a High Court is of opinion that by virtue of his ability standing at the Bar or special knowledge or experience in law he is deserving of such distinction.(3) Senior advocates, shall in the matter of their practice, be subject to such restrictions as the Bar Council of India may, in the interest of the legal profession, prescribe.(4) An advocate of the Supreme Court who was senior advocate of that Court immediately before the appointed day shall, for the purposes of this section, be deemed to be a senior advocate .

Certificate of enrolment:
(1) There shall be issued a certificate of enrolment in the prescribed form by the State Bar Council to every person whose name is entered in the roll of advocates maintained by it under this Act.(2). Every person whose name is so entered in the State roll shall notify any change in the place of his permanent residence to the State Bar Council concerned within ninety days of such change.

Authority to whom applications for enrolment may be made:
An application for admission as an advocate shall be made in the prescribed form to the State Bar Council within whose jurisdiction the applicant proposes to practice.

Punishment of Advocates for misconduct:
(1) Where on receipt of a complaint or otherwise a State Bar Council has reason to believe that any advocate on its roll has been guilty of professional or other misconduct, it shall refer the case for disposal of its disciplinary committee.(2) Where an advocate is suspended from practice under clause (c) of sub section (3) he shall, during the period of suspension, be debarred from practicing in any court or before any authority or person in India.(3) Where any notice is issued to the Advocate-General under sub-section (2) the Advocate General may appear before the disciplinary committee of the State Bar Council either in person or through any advocate appearing on his behalf.

Application of sections 5 and 12 of Limitation Act, 1963:
The provisions of sections 5 and 12 of the Limitation Act, 1963, shall, so far as may be, apply to appeals under Section 37 and Section 38

General power of the Bar Council of India to make rules:
The Bar Council of India may make rules for discharging its functions under this Act and in particular, such rules may prescribe.The conditions subject to which an advocate may be entitled to vote at an election to the State Bar Council, including the qualifications or disqualification of voters, and the matter in which an electoral roll of voters may be prepared and revised by a State Bar Council.Qualifications for membership of a Bar Council and the disqualification for such membership.

Special provisions relating to certain disciplinary proceedings:

Notwithstanding anything contained in this Chapter, every advocate who is entitled a of right to practice in the Supreme Court immediately before the appointed day and whose name is not entered in any State roll may, within the prescribed time, express his intention in the prescribed form to the Bar Council of India for the entry of his name in the roll of a State Bar Council and on receipt thereof the Bar Council of India shall direct that the name of such advocate shall, without payment of any fee, be entered in the roll of that State Bar Council, and the State Bar Council concerned shall comply with such direction.



Tuesday, May 24, 2016

एक कवि की रचना........

एक कवि नदी के किनारे खड़ा था !
तभी वहाँ से एक लड़की का शव नदी में तैरता हुआ जा रहा था।
तो तभी कवि ने उस शव से पूछा
कौन हो तुम ओ सुकुमारी,

बह रही नदियां के जल में ?

कोई तो होगा तेरा अपना,

मानव निर्मित इस भू-तल मे !

किस घर की तुम बेटी हो,

किस क्यारी की कली हो तुम

किसने तुमको छला है बोलो,

क्यों दुनिया छोड़ चली हो तुम ?

किसके नाम की मेंहदी बोलो,

हांथो पर रची है तेरे ?

बोलो किसके नाम की बिंदिया,

मांथे पर लगी है तेरे ?

लगती हो तुम राजकुमारी,

या देव लोक से आई हो ?

उपमा रहित ये रूप तुम्हारा,

ये रूप कहाँ से लायी हो?


""दूसरा दृश्य----""

कवि की बाते सुनकर,,

लड़की की आत्मा बोलती है..

कवी राज मुझ को क्षमा करो,

गरीब पिता की बेटी हुँ !

इसलिये मृत मीन की भांती,

जल धारा पर लेटी हुँ !

रूप रंग और सुन्दरता ही,

मेरी पहचान बताते है !

कंगन, चूड़ी, बिंदी, मेंहदी,

सुहागन मुझे बनाते है !

पित के सुख को सुख समझा,

पित के दुख में दुखी थी मैं !

जीवन के इस तन्हा पथ पर,

पति के संग चली थी मैं !

पति को मेने दीपक समझा,

उसकी लौ में जली थी मैं !

माता-पिता का साथ छोड,

उसके रंग में ढली थी मैं !


पर वो निकला सौदागर,

लगा दिया मेरा भी मोल !

दौलत और दहेज़ की खातिर,

पिला दिया जल में विष घोल !

दुनिया रुपी इस उपवन में,

छोटी सी एक कली थी मैं !

जिस को माली समझा,

उसी के द्वारा छली थी मैं !

इश्वर से अब न्याय मांगने,

शव शैय्या पर पड़ी हूँ मैं !

दहेज़ की लोभी इस संसार मैं,

दहेज़ की भेंट छड़ी हूँ में !

दहेज़ की भेंट चढ़ी हूँ मैं !!

..................... 

Saturday, April 23, 2016

VAKALATNAMA


IN THE HIGH COURT OF JUDICATURE
AT PATNA
VAKALATNAMA FOR

NO.                             OF                               2016
                                                                             Appellant
                                                                             Petitioner
Versus
                                                                                 Respondent
                                                                                    Opposite Party
Know all men by those Presents by this Vakalatnama
I/we





Do hereby
Appoint the advocate noted below in the margin or any of them as my/our lawful Advocate in the above-mentioned case for appearing, conducting and arguing the same or depositing or withdrawing any money in connection therewith or putting in papers petition ,etc. on my/our behalf or filling or taking back any document or with drawing suit, appeal or application with permission to institute fresh suit etc. and make compromise and for referring the case for arbitration and for doing all acts that be necessary to be done in connection with said acts. I/WE, further say that any act done by my/our said Advocates or any one of them after accepting this Vakalatnama shall be considered of my/our true and lawful act and shall be binding on me/us.
Mr.
Mr.
Mr.
Mr.
Mr.
To the above effect, I/We execute this Vakalatnama
Dated                                      of                                             2016